जीवन में जीवन
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जीवन में जीवन
इस संसार में लोग सबसे ज़्यादा क्या पाना चाहते हैं?
यदि आप इस प्रश्न का परीक्षण करेंगे और उत्तर खोजेंगे तो आपको इसके बहुत से उत्तर मिलेंगे जैसे ख़ुशी, शान्ति, विश्वास, तारीफ़, आज़ादी, पैसा आदि, लेकिन इन सब में से सबसे अधिक महत्वपूर्ण है प्रेम। प्रेम ही जीवन का केंद्र है। ज़्यादा तर कविताएँ, ज़्यादा तर संगीत, कला और फ़िल्में प्रेम को बारे में होती हैं। ‘ईश्वर प्रेम है’, ‘प्रेम से सब पर विजय पा सकते हैं’ और ऐसी ही कई बातें हैं। सभी महान् आध्यात्मिक गुरुओं ने प्रेम के महत्व पर ज़ोर दिया है। सभी महान संतों ने ईश्वर को प्रेम किया और मानवता को प्रेम किया। भगवान बुद्ध ने प्रेम की बात तो नहीं की लेकिन उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि वे बार बार पृथ्वी पर आते रहेंगे जब तक कि हर मानव को मुक्ति प्राप्त न हो जाये।क्या यह प्रेम नहीं?
इस श्रृंखला में हमने आध्यात्मिक अभ्यास के परिणाम स्वरूप होने वाले, चेतना के और दूसरे सूक्ष्म शरीरों के विकास पर फ़ोकस किया है। तो आध्यात्मिकता के विज्ञान केक्षेत्र में प्रेम कैसे प्रवेश कर जाता है?
यह समझना अति महत्वपूर्ण है क्योंकि वास्तव में यह प्रेम ही है जो हमें चेतना के विकास की अनेक उतार चढ़ाव युक्त यात्रा के अंत तक तेज़ी से ले जा सकता है। निश्चय ही, व्यक्तिगत रूप से अपनी आध्यात्मिक साधना करते हुए, आप कुछ दूर तक तो बिना प्रेम केजा सकते हैं,और उसके लिये भी आप में प्रक्रिया के प्रति पर्याप्त निष्ठा होनी चाहिये। लेकिन स्थिरता की स्थिति तक, हमारे अस्तित्व के केंद्र तक पहुँचने के लिए प्रेम आवश्यक है। प्रेम हमारे रास्ते को आसान बना देता है।
चलिए एक सांसारिक उपमा लेते हैं, विवाह। ऐसे विवाह में क्या होता है जहाँ भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता, आपस में प्रेम नहीं होता? अगर आपस में प्रेम नहीं है तो क्या साथ में रहते हुए दूसरे की गलतियों और बचकानी हरकतों को स्वीकार करना आसान होता है? इसके विपरीत यदि आपस में प्रेम है तो क्या होता है? दूसरे के द्वारा की गई गलतियाँ भी प्यारी लगती हैं। हम प्रेम में बहुत कुछ स्वीकार कर लेते हैं। हमारा जीवन सरल हो जाता है। प्रेम हर रुकावट को आसानी से दूर कर देता है।
विवाह में या साझेदारी में, प्रेम जुड़ाव लाता है और फलतः समन्वय और फिर एकात्मकता लाता है। हम सच में दूसरे की भलाई चाहते हैं। हम दूसरों को प्राथमिकता देते हैं, उनकी भावनाओं की कद्र करते हैं, उनका ध्यान रखते हैं और हर तरह से मदद करने को तैयार रहते हैं। हम उनकी भावनाओं को महसूस करते हैं और विचारों को जानते हैं। हम एक दूसरे की बात को अच्छी तरह समझ लेते हैं और तुरंत ही जरूरत को पूरा करने का प्रयास करते हैं। आपने शायद वृद्ध जोड़ों को देखा होगा जिन्होंने लंबा समय साथ बिताया है, वे आपस में इतना घुल मिल गए होते हैं कि बिना एक शब्द बोले एक दूसरे की बात समझ जाते हैं।
मातृत्व के संदर्भ में, जुड़ाव तथा एकात्मकता का एहसास और भी गहरा़ होता है। देते रहने की भावना ही माँ के अपने बच्चे के साथ संबंध को परिभाषित करती है। देते रहना ही मातृत्व का सार है। माँ अपने बच्चों के लिये कुछ भी बलिदान नहीं समझती है-चाहे वह बच्चे को जन्म देना हो, बीमार बच्चे की सारी रात देख भाल करनी होया विद्रोही और कहना न मानने वाला किशोर ही क्यों न हो-माँ का सहज स्वभाव ही प्रेम करना है।
प्रेम दिलों को जोड़ता है। प्रेम से समानुभूति, करुणा और दूसरे की ज़रूरत का गहराई से एहसास करने की जागरूकता पैदा होती है। ऐसे क्षणों में हमारे अंतर में जो कुछ होता है, वह हमारे दिल से सीधे दूसरे केदिल में स्वाभाविक रूप से उतर जाता है, बिना हमारे कुछ किये।
हमें यह जानने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं कि प्रेम हमारे दिलों को खोलता है। मानवीय स्तर पर होने वाले प्रेम का अनुभव या फिर नवजात शिशु को देखते ही प्रेम की अनुभूति, तुरंत समझ में आ जाते हैं। संसार ख़ुशियों से भरा लगता है और हम आनंदित हो जाते हैं, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है।
हृदय का एक बहुत ही रोचक गुण है- अपनी शुद्धतम अवस्था में यह वास्तव में क्षमताओं का अनंत ब्रह्मांड है। आध्यात्मिक अभ्यास से जितना अधिक यह गहनतर स्तरों तक खुलता जाता है, उतना ही अधिक हम इसके अस्तित्व के क्षेत्र का, चेतना के वर्णक्रम का, विस्तार करते हैं और उतना ही अधिक हम दूसरों के दिलों के साथ अपने जुड़ाव के प्रति जागरूक होते हैं। एक शुद्ध हृदय हर एक के हृदय से जुड़ाव महसूस करता है। प्रेम से हृदय में रिक्तता पैदा की जा सकती है, जिससे दिल से दिल तक धारा प्रवाह होने लगता है।
अब हम इसका संबंध चेतना के विस्तार की आध्यात्मिक यात्रा से जोड़ कर देखें। क्या होता है यदि हम अपना अभ्यास यंत्रवत्, दिन चर्या के तहत और बेमन से करते हैं? आप इसकी तुलना एक नीरस व प्रेम विहीन संबंध से कर सकते हैं। इसमें न तो कोई चमक होती है, न ही कोई रुचि, क्योंकि इसमें कोई जुड़ाव नहीं होता। अतः इसमें कोई विस्तार भी नहीं होता। बल्कि इसमें प्रतिरोध होता है और अभ्यास, अहंकार प्रेरित हो जाता है, जैसे कि प्रेम विहीन संबंध अहंकार प्रेरित होता है। जब रुचि होती है तो यह आध्यात्मिक अभ्यास जीवंत हो जाता है और आप कोहर क्षण आश्चर्य, अनुभूति, दिल का खुलना और चमत्कार महसूस होते हैं।
आज के संसार में, हमें अपने आध्यात्मिक अभ्यास में रुचि जगाने के लिए भरपूर सहयोग मिल रहा है। कैसे? यौगिक प्राणाहुति की मदद से। प्राणाहुति अति सूक्ष्म और उत्कृष्ट प्रेम है। प्राणाहुति सीधा स्रोत से आती है, इसलिए यह बिल्कुल शुद्धतम प्रेम है। जैसे ही हमारा दिल प्रेम के प्रति खुलता है, प्राणाहुति का प्रवाह हमें अंदर से पोषित करता है, जिस तरह माँ का प्रेम बच्चे को पोषित करता है। प्राणाहुति का अपना कोई गुण नहीं होता लेकिन यह सीमाओं को समाप्त कर देती है और पृथकत्व को दूर करती है। यह स्थूलतम अवस्थाओं को सूक्ष्मतम अवस्थाओं में परिवर्तित कर देती है। यह हमारे उलझे अस्तित्व की गाँठों को सुलझाती है, जिससे खुशी एवं आनंद प्राप्त होता है। प्राणाहुति परम उत्प्रेरक है।
प्राणाहुति कहाँ से आती है, यह शक्तिशाली प्रेम, जो सीधे हमारे अंतःकरण में प्रवेश करने केलिए तत्पर रहता है? प्राणाहुति हमेशा मौजूद होती है और अपने गुण तथा प्रयोग में असीम है। यह अपने अस्तित्व में सूक्ष्मतम बल रहित बल केरूप में होती है और सीधा स्रोत से आती है।
इसकी मौजूदगी के बारे में जानना एक बात है, लेकिन इस प्राणाहुति का उपयोग दूसरों के आध्यात्मिक विकास और चेतना के विस्तार के लिए कर पाना, बिल्कुल ही दूसरी बात है। इसके लिए स्रोत के साथ विशेष संबंध जोड़ना आवश्यक है। और यही एक गुरु की, एक उच्चतम स्तर के आध्यात्मिक मार्गदर्शक की वास्तविक भूमिका है, क्योंकि ऐसा गुरु ही उस सूक्ष्मतम सत्व, प्राणाहुति, को हमारे हृदय में संप्रेषित कर सकता है, जिससे सच्चे प्रेम की शुद्धता के साथ चेतना का विस्तार होता है।
गुरु माँ की तरह होता है जो हमें अस्तित्व के उच्चतर आयाम में जन्म देता है और हमें प्रेम से भर देता है, जो समझ से परे है। शायद स्वामी विवेकानंद का यही मतलब था जब उन्होंने कहा, ‘गुरु वह प्रकाशमान नकाब है, जिसे ईश्वर हम तक पहुँचने के लिए धारण करता है। जब हम निरंतर गुरु पर अपनी दृष्टि बनाए रखते हैं, तो धीरे -धीरे यह नकाब हट जाता है और ईश्वर प्रकट होजाता है।’
प्राणाहुति केसाथ जीवन में जीवन होता है। हृदय, चेतना का कैनवस, जहाँ मन के सूक्ष्म शरीर क्रियाशील रहते हैं, प्राणाहुति द्वारा पोषित होता है। हम उन्नति करते हैं, फलते-फूलते हैं और अंततः हमारी चेतना, पूर्ण एकात्मकता प्राप्त करने की अपनी अधिकतम क्षमता तक विस्तृत होती है। और इस तरह हम जीवन का सही मतलब समझ पाते हैं जो शायद सपनों में ही मिलता है।
हार्टफुलनेस की अधिक जानकारी के लिए | टोलफ्री1800-121-3492 |ईमेलdaaji@heartfulness.org|
नीलेश शर्मा