नियति एवं चयन की स्वतन्त्रता
नियति एवं चयन की स्वतन्त्रता
नियति एवं चयन की स्वतन्त्रता
दाजी विस्तृत होती चेतना के प्रकाश में नियति तथा चयन की स्वतन्त्रता के विषयों का अन्वेषण करते हैं। वे इस पर अपने कुछ सुझाव देते हैं कि हम कैसे अपने अंदर बदलाव लाएँ और अपनी नियति का निर्माण करें।
कई बार मैं ऐसे विचारों के भंवर में फँस जाता हूँ जो मुझे परेशान करते हैं: नेक लोगों के साथ त्रासदियाँ क्यों होती हैं जो इतने अच्छे होते हैं? ख़ास तौर पर, मैं प्राचीन हिन्दू महाकाव्य रामायण की माता सीता के जीवन के बारे में सोचता रहा हूँ। रामायण एक आदर्श नायक की जीवन यात्रा की कहानी है, जैसा कि जोसेफ़ कैम्प बैल ने वर्णित किया, अच्छाई बनाम बुराई की गाथा, जिसमें एक बड़े युद्ध में अन्ततः अच्छाई की बुराई पर विजय होती है। लेकिन यह किसी भी रूप में ‘‘बाद में खुशी भरा जीवन’’ वाली गाथा नहीं थी। दुष्ट रावण द्वारा अपहरण किए जाने और फिर अपने श्रेष्ठ पति, अवतार भगवान राम द्वारा बचा लिए जाने के बाद माता सीता लोगों के सामने उनके द्वारा अपमानित की गईं और कौन जानता है कि महल के बंद दरवाज़ों के अन्दर कितनी बार अपमानित की गईं होंगी। फलतः उन्हें निर्वासित कर, पति के बिना जंगल में भेज दिया गया और अन्ततः वे धरती माँ में समा गईं।
स्वामी विवेकानन्द ने उनके विषय में कहा था, ‘‘यह कहना कि वे पवित्र थीं, ईशनिन्दा है। वे तो पवित्रता का ही मूर्त रूप थीं - सुंदर तम व्यक्तित्व जो कभी धरती पर अवतरित हुआ।’’
उस महाकाव्य में जो कुछ भी हुआ, उसके बावजूद भी उन्होंने अपने कष्टों तथा उनके साथ हुए अन्याय का बुरा नहीं माना। वे अपने ईश्वर में ही रमी रहीं। वह विश्व साहित्य की महानतम कहानियों के समान एक दुखान्त कहानी थी। भगवान राम ने कभी पुनर्विवाह नहीं किया, हमेशा उनके प्रति वफ़ादार रहे और स्वेच्छा से सरयू नदी में समा कर अपने जीवन का अन्त किया। अब क्या इस त्रासदी की भविष्यवाणी की गई थी? महान ऋषि वशिष्ठ - सप्त ऋषियों में से एक - ने भगवान राम के साथ उनके विवाह के बारे में भविष्य वाणी की थी कि यह सर्वोत्तम विवाह है। इन महान ऋषि के अनुसार उसमें कुछ भी गलत नहीं हो सकता था लेकिन उसके विपरीत उनका पूरा जीवन कष्टों से भरा था, यहाँ तक कि भगवान राम, सर्वज्ञाता ने अपनी पत्नी को कई बार अस्वीकार किया। दार्शनिक इसके कई तरह के कारण एवं स्पष्टीकरण देते हैं, लेकिन कुछ भी दिल को संतुष्ट नहीं करता। यह मूलभूत प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठता है - यह कैसे संभव है कि ऋ़षि वशिष्ठ ने इस कथित उत्तम विवाह को सुनिश्चित किया और फिर भी इतने सारे लोगों ने कष्ट भोगे, विशेषकर महाकाव्य के प्रमुख नायकों ने, भगवान राम तथा माता सीता ने।
किसी चीज़ का कोई अर्थ नहीं निकलता, जब तक कि हम उस समझ को नहीं पा लेते जो हार्टफुलनेस, नियति तथा चयन के परिणामों के विषय में हमें देता है। फिर भी कई चीज़ों को हम गलत समझ लेते हैं। उदाहरण के लिए, बहुत से लोग आध्यात्मिक पथ पर और एक मार्ग दर्शक के पास, अपनी नियति की अपनी सारी ज़िम्मे दारी छोड़ने के लिए आते हैं, इस उम्मीद के साथ कि मार्ग दर्शक किसी तरह एक जादू की छड़ी घुमायेंगे और उनके जीवन शान्तिपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण हो जायेंगे तथा उनकी मुश्किलें ख़त्म हो जायेंगी। मुसीबत के समय में ही अधिकांश लोग ईश्वर की तरफ़ मुड़ते हैं, हताश होकर, इस आशा के साथ कि वे किसी तरह उनके दुख दूर कर देंगे। जीवन यह सब नहीं है। यह तो संभावनाओं के वर्णक्रम का एक चरम छोर है और बहुत बड़ी गलत फ़हमी है।
हमारे जीवन हृदय से मार्गदर्शित होते हैं और हमारे हृदय मौसम की भाँति बदलते रहते हैं जो हमारे संस्कारों पर आधारित होते हैं - छापों, आदतों, पसन्द और नापसन्द पर, जो अतीत में हमने इकट्ठा की होती हैं। लेकिन यदि संस्कार ही सब कुछ है, यदि हमारा भाग्य ही सब कुछ है, यदि ईश्वर ने हमारा भविष्य निश्चित कर दिया है, तो हम एक निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार काम करने वाले यंत्रमानव ही बन कर रह जाते। तब बार-बार जन्म लेने की जरूरत नहीं होती। ये सब बहुत पहले ही समाप्त हो चुका होता।
इसके बारे में सोचिए: अगर हमारी नियति पूरी तरह से पूर्वनिश्चित है, तब हमें चयन करने की क्या जरूरत है? और जो चयन हम हर रोज़ करते हैं क्या वे भी हमारी नियति द्वारा ही निर्धारित होते हैं? यदि ऐसा होता, तो हमें आचरण तथा अपने कर्मों के परिणामों के विषय में चिन्ता करने की जरूरत क्यों होती? हमें अपनी इच्छाओं को त्यागने की जरूरत क्यों होती?
इच्छाएँ, समस्याएँ, पैदा करती हैं। वास्तव में जो समस्याएँ, वे पैदा करती हैं, वे ही हमारे विकास को रोकती हैं। इनमें से बहुत सी हमारे उन संस्कारों के कारण होती हैं, जो हमारे पूर्व काल से हमारे साथ आते हैं और वे हमें परेशान करते हैं। लेकिन उन इच्छाओं का क्या जो हम वर्तमान वातावरण में पैदा करते हैं? यही इच्छाएँ, हैं जो हमारी नियति में बाधा डालती हैं।
हमारे पास हमेशा चयन करने की स्वतन्त्रता होती है। एक उदाहरण देता हूँ - मान लो, आप आई-फोन चाहते हैं, क्या यह इच्छा पूर्वकाल से आई है? आपमें वह संस्कार बनाने के लिए पहले कोई आई-फोन नहीं थे। तो आपकी इच्छा कहाँ से आई? वह संस्कारों की उस श्रेणी में आती है जिसे ‘अर्जन शीलता’ (acquisitiveness) कहते हैं। यह आई-फोन के लिए हो सकती है या एक बड़े घर के लिए हो सकती है या एक लाख डॉलर के लिए हो सकती है। यह अर्जन शीलता बहुत से आवेगों या प्रवृत्तियों को पैदा करती है। यह हमें हमारी मुख्य नियति से दूर कर देती है।
रामायण पर पुनः विचार करते हुए, क्या भगवान राम अलग चयन कर सकते थे? क्या वे अपनी पत्नी के लिए कुछ कर सकते थे? वे घोषणा कर सकते थे कि ‘‘मैं उन्हें, जैसी भी वे हैं, स्वीकार करता हूँ। मुझे उनकी पवित्रता पर पूरा विश्वास है।’’ लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि उनका त्याग कर दिया और उन्हें दूसरी बार निर्वासित कर जंगल भेज दिया क्योंकि उन पर उनकी प्रजा का दबाव था, उनके फैसलों का और उनके प्रति अपने कर्तव्यों का।
उन्होंने माता सीता की पवित्रता की यह पूछ कर परीक्षा ली कि, ‘‘तुम एक वर्ष तक रावण के साथ थीं, क्या तुम साबित कर सकती हो कि तुमने कुछ गलत नहीं किया?’’ उन्होंने यह क्यों पूछा? वे चाहते थे कि उनकी प्रजा देखे और आश्वस्त हो जाये कि राजा की पत्नी पवित्र है। माता सीता ने कोई बहस नहीं की क्योंकि वे जानती थीं कि वे पवित्र थीं। वे पूरे आत्मविश्वास के साथ आग में से गुज़र गईं और अपनी शुद्धता एवं पवित्रता को साबित किया।
वे भी भगवान राम से पूछ सकती थीं, ‘‘मेरे प्रियतम, आप भी एक वर्ष तक मुझ से दूर थे। आपने जंगल में अकेले क्या किया?’’ लेकिन वे चुप रहीं, उन्हें कोई भ्रम नहीं था। भगवान राम ने माता सीता को लोगों के सामने पूछा क्योंकि उनपर अपनी प्रजा को खुश करने का दबाव था। इस मामले में दूसरों के हस्त क्षेप के कारण और उनके चयन के
परिणामों के कारण नियति बदल गई।
इस महाकाव्य में इससे पहले भी हस्तक्षेप की एक अन्य घटना का उल्लेख है, इस बार परिवार के सदस्यों द्वारा, जो राम और सीता के पहले वनवास का कारण बना। राम के पिता, राजा दशरथ, की एक छोटी रानी थी जो राम के बजाय अपने पुत्र को राज सिंहासन पर बैठाना चाहती थी। उसका अपने पति पर दबाव तथा राम की आज्ञा कारिता एवं कर्तव्य परायणता के परिणाम स्वरूप, राम व सीता को वनवास दे दिया गया जहाँ रावण ने सीता का अपहरण किया। एक बार फिर हम पूछ सकते हैं: क्या भगवान राम अलग चयन कर सकते थे?
हम समाज से जुदा नहीं हैं। हम दूसरों से प्रभावित होते हैं और बहुत से लोग हमारी ओर से फैसले कर लेते हैं। ऐसा हस्तक्षेप नियति बदल देता है। भगवान राम के भाग्य में कठिनाइयों भरी नियति नहीं थी लेकिन दूसरों ने हल चल पैदा की और महाकाव्य बाकी की कहानी बता देता है।
प्राचीन भारत के दूसरे अवतार, भगवान कृष्ण ने कर्तव्य के प्रति लोगों की धारणा को बदलने की कोशिश की। उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें राजा के रूप में अपना कर्तव्य, जैसे निर्धारित किया गया है वैसे ही निभाना चाहिए’’, लेकिन महाभारत के महाकाव्य में सैंकड़ों बार उन्होंने भीष्म को कहा, ‘‘तुम हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति वफ़ादारी का प्रण लेकर गलत कर रहे हो। ‘राज्य के प्रति वफ़ादारी’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। हमारी वफ़ादारी सच्चाई के लिए है, धर्म के लिए है। तुम सही का साथ दो।’’
भीष्म इन अवधारणाओं को नहीं समझे क्योंकि वे पुरानी मान्यताओं के साथ ही जी रहे थे जिसमें हस्तिनापुर के सिहांसन के प्रति वफ़ादारी का भाव था।
भगवान कृष्ण ने एक बहुत अच्छा सिद्धांत दिया: भले ही आप नेक व पवित्र इरादे से कोई अच्छा काम करें, लेकिन यदि वह किसी प्रयोजन से किया जाता है, तो वह पापपूर्ण कर्म बन जाता है। क्यों? क्योंकि उसके मूल में अच्छा कर्म करने के लिए संतुष्टि प्राप्त करने की इच्छा है। आत्म-संतुष्टि के लिए अच्छे काम करने का यह पहलू अहंकार को बढ़ाता व उकसाता है। और यह अहंकार सबसे बड़ा दोषी है, जो हमें पृथक करता है, केवल एक दूसरे से ही नहीं बल्कि स्रोत से भी।
कल्पना करें कि एक विशाल समुद्र है और हम उसमें एक घड़ा डालते हैं। वह जल्द ही पानी से भर जायेगा और घड़े के अन्दर और बाहर एक जैसा पानी होगा। आसमान में उड़ते गुब्बारों की कल्पना करें - उनके अन्दर और बाहर, दोनों जगह हवा है जो गुब्बारों के प्लास्टिक के कारण अलग हो गई है। हम भी इन घड़ों और गुब्बारों की भाँति हैं। हमारा अपना व्यक्तिगत अस्तित्व है जो सार्वभौमिक अस्तित्व में तल्लीन है। हम पूरी कायनात में विचरण करते हुए अलग-अलग व्यक्ति ही रहते है। और हम ऐसे अपनी स्वयं की वैयक्तिक रचना के कारण हैं जो प्रथम पृथक्करण से शुरू हुई।
तो हम अपने मूल स्रोत के साथ कैसे पुनः जुड़ सकते हैं? हार्टफुलनेस इसमें हमारी मदद करता है और हमें ऐसी विधियाँ प्रदान करता है जिनसे हम उन सब चीज़ों से आगे बढ़ जाते हैं जो हमें पृथक करती हैं और यह हमें जीवन का उच्च्तर उद्देश्य देता है, स्रोत के साथ पुनः जुड़ने की परम नियति।
भगवद्गीता का यह अनुच्छेद आसानी से समझा जा सकता है, ‘‘आपके पास केवल कर्म करने का अधिकार है उसके फल का कदापि नहीं। इसलिए फल पाने के उद्देश्य से कर्म मत करो और न ही अकर्मण्यता में आसक्ति रखो।’’
हम इस विचार को समझ तो सकते हैं लेकिन इसे व्यवहार में लाना मुश्किल है। रेस्टोरेन्ट में खाना खाने जाने जैसी छोटी सी चीज़ के लिए भी हम योजना बनाते हैं: जैसे हम चल कर जायेंगे या कार में जायेंगे, किस मार्ग से जायेंगे, और ऐसे जायेंगे जिससे हमारे आस-पास के लोगों को परेशानी न हो।
हमारे चुनावों का लक्ष्य हमेशा हमारी नज़र में होता है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा। वह हमेशा होता है। तो फिर कर्म करने से पहले मैं कैसे उसके फल के बारे में न सोचूँ? ध्यान शुरू करने से पहले, मैं अपने उच्चतर लक्ष्य के बारे में क्यों नहीं सोचूँगा? हम हार्टफुलनेस का अभ्यास इस उच्चतर लक्ष्य को मन में रखकर ही करते हैं। क्या यह लक्ष्य हमारे कर्मों का फल नहीं है? हम परिणाम को नहीं भूलते - हम लक्ष्य को मन में रखते हैं और ऐसी जीवनशैली अपनाते हैं जो इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त हो। इसमें कुछ भी कम होगा तो हम असफल हो जायेंगे। एक एथलीट, एक अंतरिक्ष यात्री या एक आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए यही समान सिद्धान्त है।
हमारे ध्यान तथा जीवनशैली के बदलाव का फल है हमारा परम तत्व के साथ मिलन - उस परम अवस्था के साथ एकमय हो जाना। यह तभी संभव है जब पानी की बूँद सागर में मिल जाती है। और घड़े का पानी सागर में कैसे मिल सकता है? जब वह घड़ा टूट जाता है।
हमारे अंदर के मिट्टी के घड़े का सम्बन्ध चेतना से है। अहं नाम का कोई विशेष अस्तित्व नहीं है जिसकी ओर हम संकेत करके कह सकें, ‘‘यह अहं यहाँ है।’’ अहं का बहुत कुछ सम्बन्ध चेतना के साथ है। यदि आकाश में सूरज और अन्य तारे नहीं होते तो क्या होता? सृष्टि रचना से पहले के अन्तरिक्ष के रंग की कल्पना करें, उस समय घोर अंधकार था, कोई रोशनी नहीं थी। वेद और उपनिषद प्रकाश की बहुत प्रशंसा करते हैं और वह अर्थपूर्ण भी हो जाता है जब हम प्रकाश को ज्ञान के रूप में, बोध के रूप में, समझदारी के रूप में, चेतना की क्रिया के रूप में समझते हैं।
ज्ञान एवं समझदारी पूर्ण नहीं होते - वे प्रबोधन के विभिन्न चरणों से गुज़रते हुए प्राप्त होते हैं, जैसे-जैसे हम अपनी उच्चतर नियति की ओर अपनी आन्तरिक यात्रा में आगे बढ़ते जाते हैं। जब हम पहली बार ध्यान करते हैं तो जो एकात्मकता हम महसूस करते हैं, वह एक प्रकार का अनुभव है। हम शान्ति महसूस करते हैं लेकिन यह शुरू की शान्ति उस शान्ति से भिन्न है जो हम ब्रह्माण्ड क्षेत्र में प्रवेश करने पर महसूस करते हैं या जो शान्ति हम चक्र 12 पर महसूस करते हैं। हृदय क्षेत्र के चक्र 2 पर जो शान्ति हम महसूस करते हैं, वह बहुत गहन होती है, फिर भी जो शान्ति हम चक्र 12 पर महसूस करते हैं, वह बहुत उत्तम और भिन्न होती है। उसमें कोई विरोधाभास नहीं होता, कोई द्वन्द्व नहीं होता। हृदय क्षेत्र में पाँचों चक्रों पर भिन्नताएँ व द्वन्द्व होते हैं। जैसे ही हम ब्रह्माण्ड क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, वहाँ अलग प्रकार की एकता होती है। कई बार चक्र 8 पार करने के बाद हम ब्रह्मचर्य के अर्थ को वास्तव में समझ सकते हैं।
ब्रह्मचर्य क्या है? वह जो हर समय ब्रह्म में लीन रहता है। इसका कुँवारे पन से कोई सम्बन्ध नहीं। हम अंदर की मर्दाना एवं जनाना धाराओं को, सकारात्मक एवं नकारात्मक द्वन्द्वों को एकीकृत कर उनके परे जाते हैं। सब कुछ शान्त हो जाता है और हम अपने अन्दर पूर्ण एकात्मकता पाते हैं, भले ही हमारे चारों ओर अनेक प्रतिवाद हों। अतः ब्रह्मचर्य का असली मतलब तब समझ आता है जब हम ब्रह्माण्ड क्षेत्र, ब्रह्माण्ड मंडल में पहुँच जाते हैं।
अहंकार को परिष्कृत करने से सब अवरोध दूर हो जाते हैं जिससे हम हर चीज़ के साथ एकलय हो सकते हैं। हम एक संपूर्ण अस्तित्व बन जाते हैं, अब इसके या उसके तरफ दार नहीं रहते, पसंद और नापसंद से प्रभावित नहीं होते और न ही हृदय क्षेत्र के गुरुत्वाकर्षी खिंचावों से पीड़ित होते हैं। हमारा स्वप्न है, ऐसी एकात्मकता, ऐसी एकता लाना, हालाँकि हम अलग-अलग व्यक्ति हैं, जिससे कि हम, कम से कम, सामंजस्यता तथा पारस्परिक आदर भाव के साथ एक दूसरे से घुल मिल जाएँ। और फिर इस सामंजस्यता के साथ, इस एकता के साथ हम नए समाज की शुरूआत करेंगे।
उत्परिवर्तन (mutation) के विषय में बहुत कुछ कहा जा रहा है, क्योंकि उत्परिवर्तन विकास का सबसे तेज़ तरीका है। जो भी आनुवांशिक पैटर्न हम अपने माता-पिता से प्राप्त करते हैं, वह स्थाई होता है, हमारी नियति की तरह स्थाई। लेकिन हमारे पास अपनी नियति को बदलने की स्वतन्त्रता होती है और इसी प्रकार हम अपने आनुवांशिक पैटर्न को भी बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम क्रोधित होते हैं, हमारे विचार अस्थिर हो जाते हैं तब हमारी हृदय गति को क्या होता है? हमारे रक्तचाप का क्या होता है? ये सब मन पर प्रभाव डालते हैं। हमारे अंदर जो भी होता है, हमारा मन उसका तटस्थ साक्षी नहीं होता, दिमाग की भौतिक संरचना भी प्रभावित होती है।
जब हम भय भीत, उदास या चिन्तित होते हैं, तब क्या होता है? जब हम प्रसन्न, व आनन्द पूर्ण और अन्दर से शान्त होते हैं, तब क्या होता है? उस माँ के गर्भ में भ्रूण के साथ क्या होता है, जो श्रद्धा पूर्ण, समझदार, बुद्धिमान, शान्त तथा करुणा मय होती है? ऐसे न्यूरोट्रांस मिटर स्रावित होते हैं जो तंदुरुस्ती को बढ़ाते हैं। अतः आप कल्पना कर सकते हैं कि माताएँ बच्चों पर कितना स्थायी प्रभाव डाल सकती हैं। बच्चों को केवल अपना जनन सम्बन्धी कोड ही देकर नहीं बल्कि अपने विचारों तथा व्यवहार से भी प्रभाव डाल सकती हैं। इसे एपीजनेटिक्स का विज्ञान कहते हैं। माता के विचारों का, पिता के विचारोंका, उनके आचरण का, वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियों का तथा टेलिविज़न का प्रभाव सब कुछ बदल सकता है।
इसीलिए भारत में गर्भवती स्त्री को हमेशा उसके मायके भेजने की प्रथा थी। वहाँ वह खुश रहती थी और उसे खेतों में कठिन परिश्रम नहीं करना पड़ता था। वह गर्भ में पल रहे अपने बच्चे को रचनात्मक समय, गुणवत्ता पूर्ण समय दे सकती थी और उसे परिचित, सुखद तथा प्रेममय परिवेश में जन्म दे सकती थी। हमारे बुजुर्ग समझदार थे एवं वैज्ञानिक दृष्टि कोण रखते थे। उन्होंने नियम बना दिया था ताकि लोग इसका पालन करें और यह धार्मिक अनुष्ठान बन गया। इसी तरह अधिकाँश अनुष्ठान बने।
हालाँकि माता-पिता से प्राप्त वंशाणु निश्चित होते हैं, लेकिन भ्रूण के विकास में वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाहरी चीज़ें एपिजनेटिक पैटर्न को बदल देती हैं। उसी तरह, हालाँकि हमारी नियति, हमारा भाग्य हमारे संस्कार पूर्वनिश्चित हो सकते हैं लेकिन इन्हें बदला भी जा सकता है। हम कितने सुनम्य हैं, यह उस पर निर्भर करता है। हमारे पास चयन करने की स्वतन्त्रता है। यह सुनम्यता कहाँ से आती है? एक मन और हृदय से जो पूर्व कालिक संस्कारों की जड़ता से स्वतन्त्र है।
यदि आप चाहते हैं कि एकात्मकता आपकी नियति हो, तो पहला कदम है ईमानदार होना। यह चयन आप कर सकते हैं। आपके हृदय में जो भी है, उसे पहचानें, उसके प्रति जाग रूक हों। यह एक सरल अभ्यास है जिससे आप शुरू कर सकते हैं और आप शीघ्र ही देखेंगे कि ईमानदार बनना कितनी तेजी से विकसित होने में आपकी मदद करता है। यदि आप को ध्यान करना पसंद है तो उन संभावनाओं को विस्तृत करें जो ध्यान द्वारा पाँच स्वरों (vowels) a,e,i,o,uको याद रख कर मिलती हैं। पहला acquire यानी ध्यान द्वारा अवस्था को प्राप्त करें। फिर उसे बनाए रखें, enrich यानी उसे बढ़ायें और बार-बार उसका स्मरण करके उसे जीवंत रखें, उसे सजीव रखें। फिर उसे imbibe यानी उसे आत्मसात करें, हर कोशिका में और अन्ततः अपने हृदय में। और फिर oneness यानी एकात्म कता लायें, ‘उसके’ साथ unite यानी मिल जायें जो हमें सब कुछ देता है। यह अत्यन्त सरल है:
हर ध्यान के साथ
हर अवस्था को, जो हम प्राप्त (acquire) करते हैं,
उसे हम सजीव (enliven) रखें
उसे आत्मसात (imbibe) करें
और फिर उसके साथ एक (one) हो जाएँ,
उसके साथ मिल (unite) जाएँ।
हमारे अंदर की एकात्मकता, हमारे चारों ओर भी एकात्मकता पैदा करेगी, उसी प्रकार जैसे कि विश्व तभी शान्तिपूर्ण हो सकता है जब हम व्यक्तिगत रूप से शान्त हैं। विश्व में अशान्ति की स्थिति हो सकती है, लेकिन यदि हममें से हर कोई शान्त है तो स्थिति बहुत बेहतर हो सकती है। और जब हममें से बहुत से लोग शान्त होंगे तो विश्व में शान्ति होगी। इतना पर्याप्त है कि हम स्वयं को बदलें - यह काफ़ी है। यदि हम विश्व को बदलने की कोशिश करेंगे तो हम असफल होंगे। हार्टफुलनेस अभियान विश्व को बदलने के बारे में नहीं है, लेकिन विश्व बदलेगा जब लोग ध्यान को अपनाएँगे।
हार्टफुलनेस की अधिक जानकारी के लिए | टोलफ्री1800-121-3492 |ईमेलdaaji@heartfulness.org|