चेतना के अनन्त पर्दे
चेतना के अनन्त पर्दे
चेतना के अनन्त पर्दे
दाजी चेतना के वर्णक्रम का वर्णन एक अलग नज़रिये से करते हैं और हमें अपनी सूक्ष्म मानव संरचना की एक नए स्तर की समझ देते हैं।
साधारण तया, हम मानव संरचना को भौतिक शरीर के रूप में लेते हैं जिसमें तंत्रिका तंत्र, अंग, रक्त वह-तंत्र, कोशिकाओं की रचना व कार्य और डी एन ए,आदि शामिल हैं। इस क्षेत्र में इतना अधिक वैज्ञानिक शोध किया गया है, विशेष कर पिछले 500 वर्षों में, कि हम इस ज्ञान में वास्तव में उत्कृष्ट हो गए हैं।
परन्तु यह मानव-संरचना का केवल एक पहलू है। जैसा कि हमने पहले लेखों में चर्चा की है, हमारे तीन प्रमुख शरीर होते हैं - भौतिक, सूक्ष्म और कारण। कई शताब्दियों से इन तीन शरीरों के विषय में ,इनके ज्ञान में वृद्धि हुई है और आज एकीकृत मन-शरीर-आत्मा विज्ञान केस क्रिय क्षेत्र में शोध-कार्य पहले से कहीं अधिक तीव्र गति से प्रकट हो रहा है। अतः हम भौतिक, सूक्ष्म और आध्यात्मिक शरीर रचना के गति विज्ञान को बेहतर समझ सकते हैं। यह विज्ञान और आध्यात्मिकता का समय है।
उदाहरण के लिए, हमें मालूम है कि सूक्ष्म शरीर, चेतना के निरन्तर सुधार के लिए अस्तित्व में आए। दूसरे शब्दों में, वे हमारे विकास के लिए आए और वे एक दूसरे को सहयोग देते हैं। सर्वप्रथम यह हमारे ‘मैं’ की रक्षा के लिए था, हमारी पहचान के लिए। ‘मैं’, बुद्धि के विवेक और मन की विचार क्षमता के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता था। मन केये कार्य अस्तित्व और प्रगति के लिए,समन्वित रूप सेएक दूसरे को सहयोग देते हैं।
ये सूक्ष्म शरीर हमारी बेहतरी या बदलाव के लिए प्रयोग किए जा सकते हैं क्योंकि ये मनस के कार्य हैंऔर इन्हें हम जैसा चाहें इस्तेमाल कर सकते हैं। हृदय पर आधारित और प्राणाहुति के साथ की गई ध्यान-साधना का उद्देश्य ही इन्हें प्रयोग करना सीखना है ताकि चेतना विकसित हो सके।
योगियों ने भी हमारे जटिल मानव तंत्र को दूसरी विधि से समझाया है - कोश, परतें या आवरण। इस विवरण में मनुष्य, आवरण की एक के ऊपर एक, कई परतों से बना है, बाह्यतम से लेकर अंतरतम तक की। पाँच तत्व अर्थात पंचभूत - पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश- मानव संरचना की व्याख्या का एक और तरीका है। इसके अतिरिक्त एक और वर्गीकरण है जो सात क्षेत्रों का है - हृदय क्षेत्र, ब्रह्माण्ड मंडल, परब्रह्माण्ड मंडल, प्रपन्ना, प्रपन्नाप्रभु, प्रभु और केन्द्रीय क्षेत्र।
अतः योग में मानव शरीर संरचना का विवरण इन सभी तत्वों, बिंदुओं, क्षेत्रों, शरीरों और आवरणों को मिलाकर होता है।
आइए देखें, चेतना के बारे में कोश हमें क्या बताते हैं। मानव तंत्र में, अनन्त संख्या में परतें या आवरण होते हैं, सबसे बाहर भौतिक सबसे सघन होते हैं और जैसे-जैसे हम अंदर केन्द्र की ओर बढ़ते हैं ये आवरण अधिकाधिक सूक्ष्म होते जाते हैं। ये चेतना की उन असंख्य परतों के सूचक हैं, जोहमें उपलब्ध हो सकती हैं। ये साधारण तया पाँच प्रमुख कोशों के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं।
इनका विवरण देने वाली पहली पुस्तक तैत्तिरीय उपनिषद् है जो छठी शताब्दी ईसा पूर्व लिखा गया था। इसमें इन्हें प्याज की परतों के समान एक के अन्दर एक विद्यमान बताया गया है। दूसरा उदाहरण रूसी मैत्री योश्का गुड़ियों का हो सकता है जो एक के अन्दर एक रखी होती हैं।
अन्नमय कोश - भौतिक आवरण
सबसे बाह्य और सघन। पाँच तत्वों का मिश्रण - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। यहाँ हम भौतिक जगत का अनुभव करते हैं।
प्राणमय कोश - ऊर्जा आवरण
यहाँ हम ऊर्जा के प्रवाह का अनुभव अपने भीतर और अपने आस-पास की दुनिया से करते हैं।
मनोमय कोश - मानसिक आवरण
यहाँ हम मानसिक क्रियाओं का अनुभव करते हैं - सोच, विचार, चिन्तन, स्वप्न और आशाएँ। यह मन और इन्द्रियों का प्रयोग करता है।
विज्ञानमय कोश - विवेक आवरण
ज्ञान और विवेक आवरण, यह बुद्धि और इन्द्रियों का प्रयोग करता है।
आनन्द मय कोश - परमानन्द आवरण
आत्मा के चारों ओर सबसे अंदर का आवरण। यहाँ हम आनन्द, खुशी और परमानंद का अनुभव करते हैं।
भौतिक आवरण
अन्नमय कोश की गुण वत्ता, काफ़ी हद तक, हमारे द्वारा ग्रहण किए जाने वाले भोजन और उसको ग्रहण करने के तरीके पर निर्भर करती है। यह इस पर भी निर्भर करती है कि हमारी माता ने गर्भ धारण के समय किस तरह का भोजन खाया, उसकी गुणवत्ता, उस समय का वातावरण और माँ की आदतें कैसी थीं। ये मातृत्व प्रभाव, हमारे अन्नमय कोश की रचना पर गहरा प्रभाव डालते हैं।
जब हम एक सन्त के सान्निध्य में होते हैं तो हम ऊर्जा पूर्ण महसूस करते हैं क्योंकि सन्त का कोश, ऊर्जा विकीर्ण कर रहा होता है। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो हमसे ऊर्जा खींच लेते हैं, जिससे हम थका हुआ महसूस करते हैं। दूसरों द्वारा ऊर्जा खींचने को रोकने के लिए हमें हल्का और कम भोजन खाना चाहिए। इसलिए यदा-कदा व्रत रखना बताया जाता है, जिससे हमारा यह कोश संतुलित और नियमित रहे। लेकिन बहुत ज़्यादा व्रत भी अन्नमय कोश को नुकसान पहुँचा सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि अधिक भोजन इसे नुकसान पहुँचाता है। यह एक पतले या मोटे शरीर से सम्बन्ध नहीं रखता।
भोजन की गुणवत्ता के विषय में:
तामसिक भोजन हमें सुस्त और आलसी बनाते हैं।
राजसिक भोजन हमें ऊर्जापूर्ण लेकिन कभी-कभी बेचैन, चिड़चिड़ा और गुस्सैल भी बना सकते हैं यदि हम इसे अक्सर और रात में देर से खाते हैं। इसे खाने का उत्तम समय दोपहर का है।
सात्विक भोजन हमारे अंदर हल्का पन, शान्त-मन और स्थिरता बढ़ाता है; और कृतज्ञता के साथ खाया गया भोजन एक बहुत ही विशेष प्रभाव डालता है।
इस आवरण पर बहुत ज़्यादा ध्यान देने का नकारात्मक प्रभाव हो सकता है, लेकिन एक स्वस्थ जीवन बिताने के लिए हमें अपने शरीर को पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत है। जब यह सूक्ष्मतर कोशों के प्रभाव में होता है तब यह उत्तम रूप से काम करता है ।
अन्नमय कोश, वह कोश है जहाँ हम अपने कर्मों के प्रभावों का भोग करते हैं। हमें लोगों के भौतिक आवरणों में बहुत भिन्नता मिलती है। अगले तीनों कोशसूक्ष्म शरीरों से सम्बन्ध रखते हैं।
ऊर्जा- आवरण
प्राणमय कोश हमारा महत्वपूर्ण सूक्ष्म शरीर है जहाँ हम अपने तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह और अपने चारों ओर ऊर्जा का प्रवाह अनुभव करते हैं। यह अन्नमय कोश से अधिक सूक्ष्म और अधिक परिष्कृत होता है।
योगियों ने मानव तंत्र में इस ऊर्जा-प्रवाह को पाँच ऊर्जात्मक प्रक्रियाओं (कर्मेन्द्रियों) और पाँच ऊर्जा-प्रवाहों (प्राणों) के अनुसार वर्णित किया है।
पाँच ऊर्जा प्रक्रियाएँ (कर्मेन्द्रियाँ) हैं - निष्कासन (elimination), जनन, गति, हाथों से पकड़ना और बोलना।
मानव शरीर में ऊर्जा के पाँच प्रवाह ‘वायु’ के नाम से जाने जाते हैं। ये निम्नलिखित हैं:
अंदर आता प्रवाह जो श्वसन को और हर तरह की चीज़ के अन्त र्र्जहण को, वायु और भोजन से लेकर विचारों और छापों तक को नियंत्रित करता है।
निष्कासन का, नीचे की ओर और बाहर जाता प्रवाह भौतिक स्तर पर मल त्याग, मूत्र त्याग, मासिक प्रवाह और कुछ ऐसी चीज़ जिसे मानसिक रूप से बाहर निकालने की ज़रूरत होती है।
अंदर आते और बाहर जाते प्रवाहों के मिलन बिंदु पर, संतुलन कारी और एकी करण प्रवाह जो परिपाक (assimilation) और पाचन से सम्बन्धित है।
ऊपर की ओर होता प्रवाह, जो ऊर्जा को चेतना के उच्चतर स्तरों की ओर निर्देशित करता है और संवाद के द्वारा स्व-अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है और नाड़ियों, रक्त-वह तंत्र, तंत्रिका तंत्र, लिम्फ तंत्र में प्रवाह, माँस पेशियों और जोड़ों की गति और विचार व संवेदनाओं में होता प्रवाह।
इस कोश को विकसित करने के लिए प्रायः हठ योग करने की सलाह दी जाती है क्योंकि यह श्वसन-अभ्यासों (प्राणायाम) द्वारा नियंत्रित होता है। परन्तु प्राण का आवरण सूक्ष्म होता है और भौतिक तंत्र से जुड़ा नहीं होता। यह हमें ऊर्जा के बुल बुले की भाँति आच्छादित करके प्रभा मण्डल का क्षेत्र बनाता है। सूक्ष्म शरीर के चक्र भी इस कोश से सम्बन्धित होते हैं। अतः इस प्राणमय कोश के शोधन के लिए आध्यात्मिक साधना आवश्यक है।
भौतिक शरीर में कोई भी बीमारी के पैदा होने से पहले हीयह ऊर्जा आवरण अक्सर प्रभावित हो जाता है। इसीलिए एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर उपचार हमारे ऊर्जा मेरीडियन (कल्पित रेखाओं) पर काम करते हैं। जब भी कोई असंतुलन या बीमारी होती है तो अक्सर सबसे पहले प्रभावित होने वाला कोश, प्राणमय कोश ही होता है।
कभी-कभी किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य हम उस के चेहरे के चारों ओर का प्रभा मण्डल देखकर ही बता सकते हैं। हमें अन् महसूस हो जाता है - जब कोई गुस्से में है, एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के सानिध्य में है, एक प्रेममयी माँ अपने शिशु के साथ है या कोई अपने काम से खुश नहीं है जो वह कर रहा है। यह हमारा भाव है जो हमारे प्राणमय कोश को बहुत अधिक प्रभावित करता है।जब यह कोश चमक रहा होता है तो हमारा सम्पूर्ण स्वास्थ्य इससे लाभान्वित होता है। हमारे ऊर्जा आवरण में जो भी अवस्था होती है, हम उसी का विकिरण करते हैं, जिसमें शामिल है, कुछ विशेष परिस्थितिओं में आनन्दमयी, प्रेमपूर्ण भावना।प्रेम बहुत कोमल होता है।
जब हम तनाव पूर्ण, क्रोधित या संवेदनात्मक रूप से प्रतिक्रिया शील होते हैं तो हमें अधिक ऊर्जा की जरूरत होती है। अतः हम अपने अनुकंपी तंत्रिका तंत्र कोस क्रिय करके अपने प्राणमय कोश को क्रिया शील करते हैं। हमारे हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, हमारी साँस बदल जाती है और हमारा शरीर एक तनाव की प्रतिक्रिया में चला जाता है।
यह एक कारण है जिसकी वजह से योग में प्राणायाम को सम्मिलित किया गया - अनुकम्पी और परानुकम्पी तंत्रिका तंत्रों में संतुलन लाने के लिए। जब तनाव के कारण हमारा अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र सक्रिय हो जाता है तो हम स्वयं को शान्त करने के लिए परानुकंपी तंत्र को चन्द्र नाड़ी द्वारा सक्रिय कर सकते हैं। और जब हम अधिक सक्रिय और व्यस्त होना चाहते हैं तो हम सूर्य नाड़ी द्वारा अपने अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र कोस क्रिय कर सकते हैं। हम संतुलन ला सकते हैं।
इस ऊर्जा कोशको परिष्कृत करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि यहाँ चेतना, अहम् के साथ मिल जाती है और यह उस सोडियम धातु की तरह हो सकती है जिसे नमी में रखा गया है - विस्फोटक। हमारी सारी ऊर्जा प्रक्रियाएँ और संज्ञानात्मक इन्द्रियाँ अपनी ऊर्जा इसी आवरण से प्राप्त करती हैं। हमारी जागृत चेतना इसी आवरण द्वारा नियंत्रित होती है और मनो वेग व क्रोध की स्वाभाविक संवेदनाएँ भी इस आवरण द्वारा पोषित होती हैं।
काम पर या घर पर अपने प्रियजनों के साथ होने वाले लड़ाई-झगड़े, इसी आवरण में असंतुलन के कारण होते हैं। जब यह बिगड़ जाता है तो हम भयंकर रूप से अहंकारी हो सकते हैं और जब यह ठीक तरह से इस्तेमाल किया जाता है तो यह आत्मबोध कराता है।
विलास के प्रति आसक्ति और अत्यधिक भौतिक वादिता ऊर्जा आवरण के सूक्ष्म संतुलन को बिगाड़ सकती हैं। इसके विपरीत, हमारी संवेदनाओं और हमारी शक्तियों में संयम, हमारे प्राणमय कोश को संतुलित करता है और इसके फल स्वरूप अन्नमय को ।बिन्दु‘ए’ पर हार्टफुलनेस ध्यान और बिन्दु ‘बी’ पर सफाई भी इस कोशको परिष्कृत करते हैं।
इस आवरण में विपरीत पहलू प्रबल रूप से सक्रिय होते हैं। हमेशा हमारे मन में रहने वाले भाव जैसे पसंद और नापसंद, आकर्षण और विकर्षण इस आवरण को और कठिन बना देते हैं। ऐसी स्थिति में संयम लाना बहुत मुश्किल हो जाता है। हमें अपनी भाषा, शारीरिक संकेतों और आन्तरिक भावों केप्रति बहुत सतर्क रहना चाहिए। इसका मतलब है कि छोटों और बड़ों, सभी के प्रति विनम्र और विनीत रहना। अहंकार को कम करके, हमेशा महत्व हीनता की दशा बनाए रखना,इस आवरण को परिष्कृत करने का अचूक तरीका है। जब हम अपने अहम् को परिष्कृत करके इसे इसकी मौलिक शुद्धता पर ले आते हैं तभी यह आवरण अपनी शाश्वत चमक पाता है।
मानसिक आवरण
अगला आवरण और भी सूक्ष्म तर मनोमय कोश है, मानसिक आवरण, जोमन यानी मनस और पाँच संज्ञानात्मक इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों) - दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद का उपयोग करता है। यह पहले दो कोशों से कहीं अधिक विस्तृत है और सभी प्रकार की मानसिक प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है - जैसे सोच, विचार, सूझ बूझ, तर्क, चिन्तन, भावनाएँ, स्वप्न, आशाएँ और अच्छे-बुरे, सुख-दुख, आनन्द और दर्द की भावनाएँ।
मनोमय कोश दूसरे जीवों में तो अधिकतर सुषुप्त होता है लेकिन मनुष्यों में यह अधिक विकसित होता है। यह कोश हृदय के साथ मिलकर मानव जाति को परिभाषित करता है और मानव जीवन और दिव्य जीवन के बीच का सेतु है।
इस कोश को विकसित करके हम अपने निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं। हम इसका प्रयोग पूछ ताछ करके, अनुभव करके, प्रेक्षण करके, विश्लेषण करके, खोज करके और निर्णय लेकर करते हैं। हमें हर चीज में, जो भी हम करते हैं, सीधा अनुभव करने की ज़रूरत होती है, आध्यात्मिकता में भी, जिससे हमारा मनोमय कोश सक्रिय और स्वस्थ रहे। क्या किसी और के भोजन करने से हमारी भूख मिट सकती है? यदि हमारी जगह कोई और कॉलेज जाता रहे तो क्या हमारा मानसिक विकास सम्भव है?
मनोमय कोश तब भी विकसित होता है जब हम गलतियाँ करते हैं। जब हम चीज़ों का विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं तो कभी-कभी हम गलत परिणामों पर जाते हैं, लेकिन ऐसे ही तो हम अपने मनोमय कोश का प्रयोग करके सीखते हैं।
बच्चों की शिक्षा केसमय यह याद रखना महत्वपूर्ण है। जब एक शिक्षा पद्धति केवल रटने की शिक्षा पर आधारित होती है तो बच्चों में इस कोश का विकास नहीं हो पाता।
वयस्कों में भी, यदि हम केवल पढ़ते हैं, वीडियो देखते हैं और हमेशा दूसरों का ही उदाहरण देते रहते हैं, तो हम भी एक स्थान पर अटके रहेंगे चाहे हमारा ज्ञान कितना ही गहन क्यों न हों क्योंकि यह सब दूसरों से अर्जित किया गया ज्ञान है। इसे प्रायोगिक रूप में अनुभव किया जाना चाहिए ताकि इस काला भमिल सके।
मनोमय कोश विकसित होता है जब इसे दैनिक घटनाओं से चुनौती मिलती है। इसलिए चेतना के विकास के लिए गृहस्थ जीवन अच्छा है। इसमें प्रतिदिन चुनौतियाँ आती हैं और जब मनोमय कोश चुनौती का सामना करता है तो चेतना विकसित होती है। अतः समाज और परेशानियों से दूर भागना, हमारे विकास में सहायक नहीं होता।
संघर्ष और कष्ट इस कोश के लिए लाभ दायक हैं क्योंकि ये हमें समाधान ढूँढने की चुनौती देते हैं और हमें चीज़ों का स्वयं अनुभव करने, स्वीकार करने और आगे बढ़ने का अवसर देते हैं। अगर हम इन्हें विनम्रता पूर्वक स्वीकार करते हैंतोये हमारी सहायता करते हैं। अगर हम इन्हें खुशी और कृतज्ञता से स्वीकार करते हैं तो ये हमारा जीवन तुरंत बदल देते हैं क्योंकि हम एक लम्बी छलाँग के साथ चेतना के उच्चतर स्तर में पहुँच जाते हैं।
लेकिन मनोमय कोश कभी-कभी हमारे कर्ंोम को समर्थन देने के लिए, चाहे वे गलत हों या सही, हमारे क्रोध, निष्क्रियता, आलस्य, ईर्ष्या, जलन और गलतियों का औचित्य साबित करने के लिए तर्क विकसित कर लेता है। जब यह शुद्ध नहीं होता तो यह इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीकों का इस्तेमाल करके चरित्र हीनता के औचित्य को साबित करने के लिये किसी भी हदतकनी चेजा सकता है।यदि हम इस तरह के समझौता किए मनस के सामने घुटने टेक देते हैं तो हम उसे जो खिम में डाल देते हैं, जो हमारे विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
एक हार्टफुलनेस प्रशिक्षक ऐसी प्रवृत्तियों को, कुछ ही सिटिंग में, विचारों के प्रवाह को आत्मा चक्र की ओर मोड़ कर ठीक कर सकता है। समय के साथ,अभ्यास करते रहने से हमारे विचार नियंत्रित हो जाते हैं, जिससे हम एक स्वीकार्यता की अवस्था में रहते हैं। बिंदु ‘ए’ पर हार्टफुलनेस ध्यान का अभ्यास और हृदय के पास बिंदु ‘बी’ पर सफाई भीइ समें मदद करते हैं।इस कष्टदायक आवरण को परिष्कृत करने के लिए हार्टफुलनेस ध्यान अभ्यास एक वरदान है।
व्यक्तिगत संतोष और सच्ची शान्ति तभी सम्भव है जब हम इन मानसिक परेशानियों के दबाव से मुक्त हो जायें। और जब हममें से ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस श्रेष्ठ प्रयास का हिस्सा बनेंगे तो व्यक्ति गत शान्ति, विश्व शान्ति लायेगी।
यह मनोमय कोश ही है जो हमें सर्वोत्तम संतुष्टि या फिर अधिकतम असंतुष्टि या बेचैनी प्रदान करता है। जब यह आवरण अशुद्ध और स्थूल होता है, यह हमारे असमंजस और आपदाओं को बढ़ाता है। जब यह उच्चतर क्षेत्रों में संकेन्द्रित होता है, यह हमें विलक्षण मानसिक चमत्कार दिखाने में सहायक होता है, जिनमें बहु चर्चित सूक्ष्म जगत की यात्रा (astral travels) भी शामिल है।
विवेक आवरण
अगला कोश विज्ञानमय कोश है, ज्ञान का आवरण या विवेक का आवरण, जो हमारी बुद्धि और विवेक शील क्षमताओं और पाँच संज्ञानात्मक इन्द्रियों का उपयोग करता है। जैसे-जैसे यह आवरण परिष्कृत होता जाता है, हमारी बुद्धि का विस्तार, बुद्धि, सहज बोध, विवेक और उससे भी परे तक होता है। कभी-कभी इसे ‘साक्षी मन‘ भी कहते हैं क्योंकि इसमें चेतना अब हमारे विचारों, भावनाओं या कर्मों में नहीं उलझी होती, अतः यह हर चीज़ की साक्षी होती है।
यह पहले तीनों आवरणों से सूक्ष्मतर होता है और पहले तीनों सजातीय आवरणों के आधार पर जानकार बनने योग्य और जानने योग्य हो जाता है। अपनी सर्वोत्तम अवस्था मेंयह उच्चतम चेतना के साथ एकलय रहता है। अपनी न्यूनतम अवस्था से भी यह हमें, क्या अल्प कालिक है और क्या शाश्वत है, इनके बीच पहचान करना सिखाता है। आध्यात्मिकता में इस विवेक की ज़रूरत होती है। जब यह विवेक की अवस्था परिपक्व हो जाती है, तो हम अस्थाई चीज़ों के प्रति स्वतः ही अलगाव विकसित कर लेते हैं जो एक अलगाव पूर्ण-लगाव की अवस्था में बदल जाता है। मनदैनिक क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है: तरकीब यह है कि हममें यह विश्वास बना रहे कि ‘मैं कर्ता नहीं हूँ। यदि हम अपने रचयिता को ही अपने हर काम का कर्ता बना दें तो हम लगाव से मुक्त रहते हैं।
विज्ञानमय कोश अधिकांशतया आत्म जागरूकता से सम्बन्ध रखता है। इस आवरण द्वारा हमारी चेतना, अधिचेतना के आकाश में और अवचेतना की गहराइयों में विस्तृत हो सकती है। जैसे-जैसे यह आवरण अधिकाधिक परिष्कृत होता है, यह हमें अधि चेतना के सूक्ष्मतर स्तरों तक पहुँचाने में सहायक होता है। एक बार फिर यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि यह प्राणा हुति की सहायता से किया गया ध्यान-अभ्यास ही है, जिसके द्वारा यह विस्तार सम्भव है।
यह कोश हमें किसी भी क्रिया विधि में निर्णय लेने में मदद करता है। पुराने समान अनुभवों के आधार पर हम अधिक बुद्धिमानी से चुनाव करना सीखते हैं जैसे साँप से न खेलना, आग में हाथ न डालना आदि। मस्तिष्क इन अनुभवों को प्राप्त करता है, चेतना हमें इसकी पहचान कराती है और बुद्धि और विवेक हमें चुनाव करने में मदद करते हैं।
जब यह विवेक सही और लाभ कारी परिणाम लाता है तो हमारा आत्म-विश्वास बढ़ता है। और जब यह अच्छे नतीजे देने में विफल रहता है तोहम आत्म-विश्वास खोदेते हैं। तब हम पीछे मुड़कर देखते हैं कि हमने कहाँ पर गलत कदम लिया। पीछे मुड़कर देखने की यह क्रिया हमारे निरन्तर विकास के लिए महत्वपूर्ण है। कुछ ही समय में हम हृदय को सुनना सीख जाते हैं। कभी-कभी हृदय हमें किसी चीज़ से दूर रहने को कहता है लेकिन हम नहीं सुनते, तब हमें उसका परिणाम भुगतना पड़ता है जिससे पछ तावा होता है। कोई बात नहीं! लेकिन इसे दोहराएँ नहीं।
हार्टफुलनेस ध्यान कोशों केच क्रों के और सम्पूर्ण भौतिक तंत्र के कंपन स्तर पर शुद्धिकरण को तेज़ कर देता है। इन तीन कोशों की मदद, जो सूक्ष्म शरीरों से सम्बन्धित होते हैं, किसी भी लक्ष्य प्राप्ति के लिए सहायक है। जब हृदय की ओर निरन्तर ध्यान केन्द्रित होता है तो हृदय मार्गदर्शक बन जाता है और कोश बेहतर कार्य करते हैं। एक मासूम और पवित्र हृदय मदद प्राप्त करता है। यहाँ भगवानयी शुका एक कथन दो हराने योग्य है, ‘‘छोटे बच्चों के समान बनें।’’ बच्चे के समान अवस्था मासूमियत और पवित्रता दर्शाती है। बच्चों में कोई अहंकार नहीं होता, यह कहने का कि ‘‘मैं सब जानता हूँ।’’ ऐसे दावे चेतना केविस्तार को रोकते हैं।
सूक्ष्म शरीरों और उनसे सम्बन्धित कोशों की तिकड़ी, संस्कारों, विचारों के बनने और दूर करने में, याद्दाश्त बनाए रखने में और पुराने समान अनुभवों को याद करनें में एक बड़ी भूमिका निभाती है और इस तरह से ज़रूरत पड़ने पर आवश्यक जानकारी प्रदान करती है।
आनन्द आवरण
अंत में आनन्दमय कोश आता है, जो कारण शरीर या आत्मा के बाहर का आवरण है और चेतना केएक और सूक्ष्मतर स्तर से सम्बन्धित है। यह खुशी, आनन्द और परमानन्द का आवरण है और आनन्द इसका भोजन है। यह कोश ज्ञान और अनुभव, यहाँ तक कि मन से भी परे है। यह बस‘ अस्तित्व’ के बारे में है जहाँ हम ही परमा नन्द हैं।
यह पाँचों आवरणों में सूक्ष्मतम है। अपनी यात्रा में हम कई आध्यात्मिक अवस्थाओं से गुज़रते हैं जो हमें अनेक स्तरों के अनुभव प्रदान करती हैं और हमारी चेतना को अधिकाधिक विकसित करती हैं। हम बाकी चारों आवरणों केस्तर पर भी आनन्द अभिव्यक्त करते हैं जो इस बात पर निर्भर करता है कि आनन्दमय कोश से कितना अनुनाद उत्पन्न हो रहा है। यह पाँचवाँ कोश भी यात्रा का अंत नहीं है, हालाँकि सत्-चित-आनन्द एक अत्यन्त उच्च अवस्था मानी जाती है।
आध्यात्मिक यात्रा के दौरान हम इन सभी आवरणों से आगे बढ़ते हैं। आगे भी यात्रा जारी रहती है और यह अनुभवातीतता (transcendence) एक और तरीका है, मानव विकास की यात्रा और चेतना के विस्तार को समझाने का।
सभी कोशों की अन्तर्निहित सीमितताएँ हैं, चाहे वे कितने ही सूक्ष्म क्यों न हों। ये सभी परस्पर गुथे हुए होते हैं। वास्तव मेंये लकड़ी की रूसी गुड़ियों की तरह एक नियमित क्रम में एक के अंदर एक नहीं रखे होते। ध्यान में हमें अक्सर विचार आते हैं। विचारों के प्रकार पर आधारित हम उन कोशों का पता लगा सकते हैं जहाँ हम तकरीबन सीमित हैं। तो सूक्ष्म शरीरों और कोशों के बीच संरेखण (alignment) के अनुसार हम कह सकते हैं किः
अहंकार या अहं, इच्छा शक्ति और प्राण शक्ति का सूक्षम शरीर है और प्राणमय कोश के साथ घनिष्ठता से जुड़ा होता है।
मनस - चिन्तनशील मन, मनोमयकोश के साथ घनिष्ठता से जुड़ा होता है।
और बुद्धि विज्ञानमय कोश के साथ घनिष्ठता से जुड़ी होती है जो विवेक आवरण है।
और चित्त या चेतना का क्या? याद रहे कि चेतना एक कैनवस है जिस पर दूसरे तीन स्थूल शरीर अपना खेल खेलते हैं। अतः यह सूक्ष्म शरीरों के तीनों कोशों - प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय से सम्बन्धित होती है। लेकिन चेतना, स्थूल शरीर केहर अंग और हर कोशिका में भी होती है और वर्णक्रम के दूसरे छोर पर यह आत्मा केभी निकटतम होती है। तो यह है कहाँ?
चेतना सर्वत्र है। एक बोध-प्राप्त योगी में, चेतना चारों ओर 360 डिग्री में होती है और जहाँ इसकी जरूरत होती है, उधर ही यह प्रवाहित होने लगती है। चेतना मनुष्य के सभी कोशों में विस्तार करती है।
अगर हमें अभी ज्ञान बोध प्राप्त नहीं हुआ है और हम अपनी चेतना की पूरी पहुँच से अवगत नहीं हैं, तो वह केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपनी चेतना का, अधि चेतना और अव चेतना के बीच के सम्पूर्ण वर्ण क्रम में विस्तार नहीं किया है। कोश, चेतना के वर्ण क्रम का विवरण देने का दूसरा तरीका है,कि हम जैसे-जैसे अपनी यात्रा में आगे बढ़ते हैं, हम उनमें विस्तृत होते जाते हैं।
अतः योग, उन अभ्यासों का एक समूह है, जो हमारे ऊर्जा केन्द्रों या चक्रों को परिष्कृत करते हैं, आवरणों या कोशों को परिष्कृत करते हैं और चेतना के विभिन्न स्तरों को पार करने में हमारे सहायक होते हैं।
हममें से प्रत्येक एक चेतना को दर्शाता है जो पाँच आवरणों के विषम जाल के बीच इसकी भूमिका पर आधारित होता है। ये पाँचों आवरण हमारी ध्यान साधना और सफ़ाई द्वारा परिष्कृत होते हैं। यह शुद्धि करण प्रक्रिया, प्राणाहुति के द्वारा तेज़ी से होती है। जब हम अपनी चेतना को सभी पाँचों आवरणों के साथ समंजित कर लेते हैं तो हम अपने जीवन में आनन्द को sस्वतः प्रस्फुटित होता हुआ देखते हैं।
हार्टफुलनेस की अधिक जानकारी के लिए | टोलफ्री1800-121-3492 |ईमेलdaaji@heartfulness.org|