चेतना के क्षेत्र की यात्रा
चेतना के क्षेत्र की यात्रा
चेतना के क्षेत्र की यात्रा
अनंत चेतना की ओर की यात्रा विस्तृत है और आश्चर्य तथा उतार-चढ़ाव से भरी है। दाजी हमें कुछ सुझाव देते हैं कि इस यात्रा में अधिकतम सफलता कैसे प्राप्त की जा सकती है।
यौगिक प्राणाहुति केसाथ किया गया एक सरल ध्यान हमें चेतना केसभी स्तरों को पार करने में सहायक हो सकता है। यात्रा का क्षेत्र ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ और सभी दिशाओं में होता है। अतः जिस तरह एक व्यक्ति जिसे चलने की आदत नहीं होती, ऐसी ऊबड़-खाबड़ राह पर यात्रा करते थक जाता है, उसी तरह वह व्यक्ति जो अधि चेतन और अव चेतन के स्तरों के उतार-चढ़ाव का आदी नहीं है, वह थकान महसूस करता है और इस राह को बहुत कठिन समझता है।
लेकिन प्राणाहुति की सहायता से एक व्यक्ति चेतना के विभिन्न स्तरों को कहीं अधिक आसानी से पार कर सकता है। उदाहरण केलिए हृदय-चक्र कोलें, जोअपने आप में एक आकाश गंगा के समान है, जिसमें कई तारा मंडल हैं और उनमें से पाँच प्रमुख हैं। जिस तरीके से हम एक से दूसरे की ओर बढ़ते हैं वह अत्यन्त आश्चर्यजनक तरीके से होता है। कभी-कभी हम इन आन्तरिक चमत्कारों को देखते हुए, जो हमारी हृदय की आँखों के सामने प्रकट होते हैं, अविश्वास से अवाक् रह जाते हैं। प्राणाहुति की सहायता से हम बिजली की गति से आगे बढ़ पाते हैं।
हर बिन्दु या स्टेशन का वातावरण बहुत अधिक भिन्न होता है, जैसे कि एक आकाश गंगा से दूसरी आकाश गंगा का होगा और वह हमें प्रत्येक आध्यात्मिक पड़ाव पर विद्यमान दशाओं केकारण, एक अस्थाई अनुभव देता है।
यह निरन्तर होने वाला परिवर्तन, हमारे लिए, अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर बढ़ते समय निराशा जनक हो सकता है क्योंकि हमें स्थिरता और एक स्थाई परिचित वातावरण पसंद है। लेकिन यदि हम विकसित होना चाहते हैं, यदि चेतना को विकसित होना है, तो यह परिवर्तन जरूरी है। किसी विशेष स्थिति में आराम से बने रहने का विचार हमारे विकास को धीमा कर देगा।
और जैसे-जैसे हम साल दर साल अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर आगे बढ़ते हैं, हम पाते हैं कि प्रत्येक आगे वाली अवस्था, पहली अवस्था से कहीं अधिक परिष्कृत और विस्तृत होती है। तब हम अपनी यात्रा केदौरान आने वाली छोटी-मोटी परेशानियों की असली अहमियत को सराह पाते हैं। ठीक इसी समय, जब हम इस असुविधा के कारण परेशान होते हैं, हमें अगले पड़ाव तक पहुँचने के लिए, अपने प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत होती है। यदि हम इसे अपने आप कर पाते हैं, तोये हमें अपनी आध्यात्मिक यात्रा में अधिकाधिक आध्यात्मिक स्तरों को पार करने केलिए सशक्त बनाता है।
एक योग्य मार्गदर्शक से हमें सदैव सहायता प्राप्त होती है, जो आध्यात्मिक अवस्थाओं को पार करने में निरन्तर हमारी सहायता करता है। और यह सहायता हमारे लिए अधिकाधिक आवश्यक होती जाती है जैसे-जैसे हम उच्चत्तर अवस्थाओं की ओर बढ़ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि एवरेस्ट केशिखर केनज़दीक पहुँचने पर एक पर्वता रोही कोशेरपा की अधिक आवश्यकता पड़ती है। हम इन अवस्थाओं के आन्तरिक सौन्दर्य को अधिक सराह पायेंगे जब हम उन्हें स्वयं अनुभव करेंगे। इसे केवल पुस्तकों में पढ़कर जानना या कल्पना करके समझना सम्भव नहीं।
शान्ति, प्रेम, बेचैनी, संतोष, निर्भीकता और साहस जैसी अवस्थाएँ भी पूरे व्यापक क्षेत्र में मौजूद रहती हैं। ये परम अवस्थाएँ नहीं होतीं लेकिन निरन्तर विकसित और गहनतम होती रहती हैं। उदाहरण के लिए, हम आध्यात्मिक साधना कोशुरू करते ही शान्ति महसूस कर सकते हैं, पर कई साल साधना करने केबाद महसूस होने वाली शान्ति, पूरी तरह से भिन्न और ऊँचे स्तर की होती है। केवल आन्तरिक आध्यात्मिक यात्रा के द्वारा ही हम संतोष, स्थिरता बेचैनी और प्रेम के विभिन्न स्तर अनुभव कर सकते हैं। और तब अन्ततः हम एक पूर्णतः अलग ध्येय की ओर बढ़ते हैं - जब हम अपने रचयिता और स्वयं के बीच विलयन को सराह पाते हैं।
जैसे-जैसे हम इस यात्रा पर आगे बढ़ते हैं, हमारे सूक्ष्म शरीर - मनस, बुद्धि और अहंकार - निरन्तर सुधार की भावना के साथ की गई आध्यात्मिक साधना द्वारा अधिकाधिक परिष्कृत होते जाते हैं और यह अन्ततः हमारी चेतना को शुद्ध करता है। लेकिन यदि हम अपने इस
शोधन पर काम न करें तो क्या होता है? इसके बजाय, यदि हम सोचने लगें कि हम महान आध्यात्मिक ऊँचाईयों पर पहुँच गए हैं और दूसरों से बेहतर हैं, जिसके कारण हमारा अहंकार बहुत बढ़ जाता है, तो क्या होगा? क्या हमारी चेतना तब भी शुद्ध रहेगी और विकसित होती रहेगी? नहीं, यह सम्भव नहीं। बल्कि हमारा पतन होने लगेगा।
अहम्, जो ऐसी सोच से रंग गया है कि ‘‘मैं महान हूँ’’ या ‘‘मैं लक्ष्य तक पहुँच गया हूँ,’’ या ऐसी सोच से भी कि ‘‘मैं इसके अयोग्य हूँ और बेकार हूँ’’ वह इतना स्थूल और संकुचित हो जायेगा कि चेतना उसी सीमित अवस्था में ही पतित होती रहेगी। और तब बाकी सब एक दूरगामी प्रभाव (एक घटना से अन्य घटनाओं का होना) के कारण ढह जायेगा। बुद्धि, सहज बोध तक विकसित नहीं हो पायेगी और सोच, एहसास में नहीं बदल पायेगी। हम एक अति संकुचित मानसिक प्रक्रिया और वैश्विक नज़रिये में फँस कर रह जायेंगे।
जब बुद्धि और विचार प्रक्रियाएँ, हृदय के सहज बोध और प्रेरणा के बिना केवल तर्क और रटे हुए ज्ञान की शिक्षा द्वारा सीमित होते हैं, तब भी हम वैश्वक नज़रिए के संकुचित दायरे में फँसे रहते हैं। ऐसे में चेतना विस्तृत और विकसित नहीं हो सकती।
अतः भले ही हम नियमित ध्यान करते हुए अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर चल रहे हैं, पर अगर ये सूक्ष्म शरीर अधिक परिष्कृत और सूक्ष्म नहीं हो रहे, तो हम एक ही जगह भँवर में घूमते रहेंगे, जैसे कि एक पालतू पशुओं की दुकान में चूहे, पिजड़ों के अंदर गोल-गोल घूमते रहते हैं। और इससे भी बद्तर होगा कि हमारी चेतना संकुचित होकर कठोर हो जायेगी। यह चट्टानों और खनिजों की चेतना की तरह ठोस और सघन हो जायेगी। और इस फीके पन को योग में तामसिक चेतना कहते हैं।
तो हम इन खतरों से कैसे बचें?
पहला तरीका है कि प्राणाहुति के साथ ध्यान करना। यह हमें मन के नियंत्रण में, हृदय में गहरा उतरने में, विचार से एहसास तक जाने में और बुद्धि से विवेक की ओर जाने में सहायक होता है।
दूसरा तरीका है उन आदतों और प्रवृत्तियों को सफ़ाई की प्रक्रिया द्वारा दूर करना, जोहमें एक संकुचित वैश्विक नज़रिए में अटकाए रहती हैं, और जो भूतकाल की अंतर्निहित छापों के कारण बनीं।
और तीसरा है, हृदय में एक प्रार्थनापूर्ण अवस्था और रिक्तता पैदा करना, जिससे कि हम अपने आन्तरिक स्व के साथ जुड़ सकें।
चौथा है, अपने चरित्र को परिष्कृत करना और आदर्श बनाना। एक चरित्रहीन व्यक्ति, अस्तित्व का सीमित नज़रिया रखता है और इससे उसकी चेतना बाधित होती है। वह चोरी करता है, झूठ बोलता है या धोखा देता है क्योंकि वह अपने रास्ते से, अपने केन्द्र से भटक गया है। वह केन्द्र से दूर हो गया है। जो व्यक्ति केन्द्र से दूर हो गया है, वह चेतना के क्षेत्र को आसानी से पार नहीं कर सकता।
निरन्तर सुधार ज़रूरी है। जब अहम् एक घमंडी नज़रिये केरूप में प्रकट होता है कि ‘‘मैं सबसे उत्तम हूँ’’ या ‘‘मैं जानता हूँ’’ तो वहाँ सुधार की कोई गुँजाइश नहीं रहती। जब बुद्धि, विवेक में विकसित नहीं होती, तब वहाँ कोई प्रेरणा नहीं होती और फिर चेतना सीमित होजाती है। जब विचार, गहन होकर, अनुभूति में नहीं बदलते, जब इच्छा और विचार प्रबल बने रहते हैं, तो चेतना का विकास नहीं हो सकता।
बाह्य व्यवहार में इस विकास को देख पाना आसान है। उदाहरण के लिए, जब हम भावावेश में होते हैं, तो हम केवल अपनी इच्छा पूर्ति में रुचि रखते हैं, चाहे वह कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो। जब करुणा हावी होती है, तो हम दूसरों के भले के लिए अपनी इच्छाओं को त्याग देते हैं - यहाँ चेतना स्वतः ही विस्तृत होकर, दूसरी प्रवृत्तियों को ढक लेती है। हमें जैसे-जैसे मिलता है, हम अधिकाधिक देते रहते हैं। यह हृदय की उदारता है।
अतः ध्यान दृढ-निश्चयी लोगों के लिए है, जो दूसरों की अपेक्षा तीव्र गति से विकसित होना चाहते हैं। इस शोधन के लिए सभी प्रायोगिक साधन उपलब्ध हैं - बस हममें इनकी चाह होनी चाहिए।
हार्टफुलनेस की अधिक जानकारी के लिए | टोलफ्री1800-121-3492 |ईमेलdaaji@heartfulness.org|